Thursday, October 14, 2010
Monday, October 11, 2010
Rasik Gupta जब बिक गयी मेरी कार, तुम भूल गये सारा प्यार्………तेरी याद भी निकली तुझसे ज्यादा वफादार्………एक पल के लिए भी मुझे तन्हा नही किया……पिंकी को छोडा, तो मिल गई रिया
Tuesday, October 5, 2010
Thursday, September 30, 2010
राम सेतू
दिल टूटेगा राम सेतू को मत तोड़ो
राम बसे हैं रोम रोम में ज़िद छोड़ो
जो भी मिलता राम राम ही करता है
बिना राम के पार न कोई उतरता है
सुबह शाम बस राम ज़ुबां पे रहते हैं
राम नाम हैं सत्य सभी ये कहते है
अपनी किस्मत अपने हाथों मत फोड़ो
दिल टूटेगा राम सेतू को मत तोड़ो
कैसा कलयुग राम नाम को जाँच रहे
रामायण को कब से घर घर बाँच रहे
राम नाम को सबने चारों धाम कहा
गांधी ने भी अंत समय हे राम कहा
सिर्फ न कुर्सी माया के पीछे दौड़ो
दिल टूटेगा राम सेतू को मत तोड़ो
मानव निर्मित वैज्ञानिकों ने माना है
क्यों संशय जब नासा ने पहचाना है
खुद पर सेतू सुनामी की मार सहे
भूकम्पों के झटके बारम्बार सहे
नष्ट न हो इतिहास अरे रास्ता मोड़ो
दिल टूटेगा राम सेतू को मत तोड़ो
खड़े तमाशा देख यहाँ सब लोग रहे
चुप रहने की सजा सदा से भोग रहे
हाथ पे हाथ धरे जब तक तुम बैठोगे
सागर दे रस्ता ना, जब तक ऐंठोगे
हो जब अत्याचार न हाथों को जोड़ो
दिल टूटेगा राम सेतू को मत तोड़ो
Tuesday, September 28, 2010
“नेता टेलेंट ट्रेनिंग इन्स्टिट्यूट”
ख़ुशख़बरी ख़ुशख़बरी ख़ुशख़बरी
चाकूबाज़, छुरीबाज़, धोखेबाज़, दग़ाबाज़ अपनी जेबें भ्ररें
अपने अपने क्षेत्र में नेतागिरि करें
खुल गया खुल गया
आपके इलाक़े मे पहली बार “नेता टेलेंट ट्रेनिंग इन्स्टिट्यूट”
हमारे यहाँ गधे घोड़ों को
उचित ट्रेनिंग द्वारा नेता बनाया जाता है
सदन मे शोर करना, माईक व जूता फ़ेकना, बयान बदलना
व कुर्सी पर कब्जा करना सिखाया जाता है
कम से कम पार्षद बनकर समाज मे शान से तनिये
और यदि पारिवारिक पृष्ठभूमि हो तो एम एल ए से एम पी तक बनिये
न्यूनतम आयु इक्कीस वर्ष
तत्पश्चात् किसी भी उम्र में आएँ
और छः महीने में अखिल भारतीय नेता का डिप्लोमा पाएँ
भले ही आप पर हत्या या बलात्कार का इल्ज़ाम हो
जुआघर चलाते हों, या सट्टे का काम हो
बस एक बार सच्चे मन से कीजिये
ईमानदार नेता बनने का प्रण
अनपढ़, गँवार, जाहिल, बदतमीज़ लोगों के लिये विशेष आरक्षण
सभी के लिये ओपन बबलू-बंटी, अंकल-आंटी
नेता बनने के पश्चात् टिकट दिलाने तक की गारंटी
इस सुनहरे अवसर का लाभ उठाइये
और यदि आप किसी नेता के पुत्र या सम्बन्धी हैं
तो फ़ार्म निशुल्क ले जाइये
सीधे नेता बनिये
किसी के चमचे या दास नहीं
और फ़ीस भी कोई ख़ास नहीं
पद पाने के बाद
हमें भूल मत जाना
पैट्रोल पंप, गैस-एजेंसी
या फिर शराब का ठेका ज़रूर दिलवाना
राजनीति की नस
बस एक बार आ जाए पकड़ाई में
उसके बाद तो पाँचों उंगलियाँ घी में
और सिर कढ़ाई में
ना ही इस काम में आता कभी मंदा है
सच, आजकल अधिकतर नेताओं की राजनीति
सिर्फ़ एक धंधा है
काश! हम अपने देश के नेता
ईमानदारी और सच्चाई की भट्टी में बनाते
और उन्हें
भाईचारे व सद्भावना के कपड़े पहनाते
तो वे देश का सम्पूर्ण विकास कर पाते
और भारत को पुनः विश्वगुरु के पद तक पहुँचाते
चाकूबाज़, छुरीबाज़, धोखेबाज़, दग़ाबाज़ अपनी जेबें भ्ररें
अपने अपने क्षेत्र में नेतागिरि करें
खुल गया खुल गया
आपके इलाक़े मे पहली बार “नेता टेलेंट ट्रेनिंग इन्स्टिट्यूट”
हमारे यहाँ गधे घोड़ों को
उचित ट्रेनिंग द्वारा नेता बनाया जाता है
सदन मे शोर करना, माईक व जूता फ़ेकना, बयान बदलना
व कुर्सी पर कब्जा करना सिखाया जाता है
कम से कम पार्षद बनकर समाज मे शान से तनिये
और यदि पारिवारिक पृष्ठभूमि हो तो एम एल ए से एम पी तक बनिये
न्यूनतम आयु इक्कीस वर्ष
तत्पश्चात् किसी भी उम्र में आएँ
और छः महीने में अखिल भारतीय नेता का डिप्लोमा पाएँ
भले ही आप पर हत्या या बलात्कार का इल्ज़ाम हो
जुआघर चलाते हों, या सट्टे का काम हो
बस एक बार सच्चे मन से कीजिये
ईमानदार नेता बनने का प्रण
अनपढ़, गँवार, जाहिल, बदतमीज़ लोगों के लिये विशेष आरक्षण
सभी के लिये ओपन बबलू-बंटी, अंकल-आंटी
नेता बनने के पश्चात् टिकट दिलाने तक की गारंटी
इस सुनहरे अवसर का लाभ उठाइये
और यदि आप किसी नेता के पुत्र या सम्बन्धी हैं
तो फ़ार्म निशुल्क ले जाइये
सीधे नेता बनिये
किसी के चमचे या दास नहीं
और फ़ीस भी कोई ख़ास नहीं
पद पाने के बाद
हमें भूल मत जाना
पैट्रोल पंप, गैस-एजेंसी
या फिर शराब का ठेका ज़रूर दिलवाना
राजनीति की नस
बस एक बार आ जाए पकड़ाई में
उसके बाद तो पाँचों उंगलियाँ घी में
और सिर कढ़ाई में
ना ही इस काम में आता कभी मंदा है
सच, आजकल अधिकतर नेताओं की राजनीति
सिर्फ़ एक धंधा है
काश! हम अपने देश के नेता
ईमानदारी और सच्चाई की भट्टी में बनाते
और उन्हें
भाईचारे व सद्भावना के कपड़े पहनाते
तो वे देश का सम्पूर्ण विकास कर पाते
और भारत को पुनः विश्वगुरु के पद तक पहुँचाते
Friday, September 24, 2010
Tuesday, September 21, 2010
संयुक्त परिवार
सच पूछो तो जीवन मे बस प्यार ही प्यार था
जब हमारे समाज मे संयुक्त परिवार था
दादा दादी , चाचा चाची,
ताऊ ताई , बहन भाई ,
किसी एक की ख़ुशी मे पूरे परिवार का चेहरा खिलता था
और हर एक बच्चे को कई कई माताओं का प्यार मिलता था
जब घर का कोई सदस्य बीमार हो जाता था
तो पूरा परिवार उसकी सेवा मे लग जाता था
चारों तरफ खुशियाँ ही खुशियाँ नज़र आती थी
और कोई बच्चा रूठ जाये तो दादी कितने प्यार से मानती थी
बच्चो का लड़ना, झगड़ना, फिर एक थाली मे बैठकर खाना
और बहुओं का बारी बारी से मायके मे जाना
पूरा का पूरा परिवार एक ही छत के नीचे पलता था
हँसते खिलखिलाते कब बड़े हो गए पता ही नहीं चलता था
परिवार के सभी सदस्य एक दूसरे के लिए जीते थे
एक दूसरे के लिए मरते थे
और व्यक्ति जितना प्यार पत्नी को
उतना ज्यादा माँ बाप को करते थे
लेकिन आज के एकल परिवार मे
पिता रात को काम से आते हैं
और उनके आने से पहले
बच्चे खा पी कर सो जाते हैं
दोपहर मे बच्चे स्कूल से आकर शाम तक
मम्मी के आफ़िस से आने का करते हैं इंतजार
बच्चे नहीं जानते क्या होता है दादा दादी का प्यार
बच्चे नहीं जानते चाचा चाची का दुलार
काश बच्चो को फिर मिल जाये वो मजबूत आधार
काश बच्चो को फिर मिल जाये सयुंक्त परिवार
सयुंक्त परिवार , सयुंक्त परिवार !
जब हमारे समाज मे संयुक्त परिवार था
दादा दादी , चाचा चाची,
ताऊ ताई , बहन भाई ,
किसी एक की ख़ुशी मे पूरे परिवार का चेहरा खिलता था
और हर एक बच्चे को कई कई माताओं का प्यार मिलता था
जब घर का कोई सदस्य बीमार हो जाता था
तो पूरा परिवार उसकी सेवा मे लग जाता था
चारों तरफ खुशियाँ ही खुशियाँ नज़र आती थी
और कोई बच्चा रूठ जाये तो दादी कितने प्यार से मानती थी
बच्चो का लड़ना, झगड़ना, फिर एक थाली मे बैठकर खाना
और बहुओं का बारी बारी से मायके मे जाना
पूरा का पूरा परिवार एक ही छत के नीचे पलता था
हँसते खिलखिलाते कब बड़े हो गए पता ही नहीं चलता था
परिवार के सभी सदस्य एक दूसरे के लिए जीते थे
एक दूसरे के लिए मरते थे
और व्यक्ति जितना प्यार पत्नी को
उतना ज्यादा माँ बाप को करते थे
लेकिन आज के एकल परिवार मे
पिता रात को काम से आते हैं
और उनके आने से पहले
बच्चे खा पी कर सो जाते हैं
दोपहर मे बच्चे स्कूल से आकर शाम तक
मम्मी के आफ़िस से आने का करते हैं इंतजार
बच्चे नहीं जानते क्या होता है दादा दादी का प्यार
बच्चे नहीं जानते चाचा चाची का दुलार
काश बच्चो को फिर मिल जाये वो मजबूत आधार
काश बच्चो को फिर मिल जाये सयुंक्त परिवार
सयुंक्त परिवार , सयुंक्त परिवार !
Thursday, March 18, 2010
प्रायश्चित
सामने माँ का पार्थिव शरीर पड़ा था,
और बेटा निःशब्द किसी मूर्ती सा खड़ा था,
फर्क था तो सिर्फ आंसुओं का
जो निरंतर बह रहे थे,
और बिना कुछ कहे ही सब कुछ कह रहे थे।
बेटा इसलिए नहीं रो रहा था
की माँ ज़िन्दगी से मुह मोड़ गयी थी,
मुझे अकेला छोड़ गयी थी
वो जानता है की मौत तो सिर्फ एक बहाना है,
एक दिन हम सबको जाना है
बल्कि इसलिए रो रहा है,
कि मेरी माँ ने जीवन में बाज़ार से,
कभी कुछ लाने के लिए नहीं कहा
कभी कुछ खाने के लिए नहीं कहा,
हर कमी को चुप चाप सहा
और मैं अनजान बन सब देखता रहा।
माँ खुद गीले में सोती है,
बच्चे को को सूखे में सुलाती है,
बच्चा रोये तो सारी रात बाँहों में झुलाती है,
बच्चों को मुस्कुराता देख माँ के नयन
कैसे ख़ुशी से फूल जाते हैं,
और बच्चे बड़े हो कर
कितनी आसानी से अपना फ़र्ज़ भूल जाते हैं।
जब कभी घर देर से आता था,
तो माँ को दरवाज़े पे खड़ा पता था,
माँ उसी वक्त मेरे लिए गरमा गर्म खाना पकती थी,
और मुझे खिलने के बाद ही
बचा खुचा खुद खाती थी।
एक बार जब मैं बीमार पड़ा
और बहुत तेज़ बुखार चढ़ा,
माँ कभी बातों से बहलाती - कभी पीठ सहलाती
कभी दावा कभी दुआ करते कितना रोई,
सारी रात जगी, एक पल भी नहीं सोयी।
और एक बार माँ का शुगर लेवल थोडा सा बढ़ा पाया था,
तो मुझे कितना गुस्सा आया था ,
माँ ने तो बस प्रसाद का एक पेंडा खाया था,
और उस दिन के बाद से मीठे को कभी हाथ नहीं लगाया था ।
और जिस दिन हमारी फैमिली डिनर पर जाती थी,
माँ घर पर अचार से रोटी खाती थी,
शुगर से बहुत घबराती थी।
हाँ मैंने माँ से किया था उस दिन दावा लाने का वादा,
लेकिन दावा की दुकान पर थी भीड़ बहुत ज्यादा,
बेटे का जन्मदिन है देर हो गयी तो मचल जायेगा,
शीशी में ज़रा सी दावा बची है
माँ का काम तो किसी न किसी तरह चल जायेगा।
माँ के न पैरों में जान न हाथ में छड़ी थी,
दिखाई कम देता था एक बार गिर पड़ी थी,
तब माँ ने पहली बार कहा था
"बेटा मुझे एक चश्मा ला दे"
कैसे भूलूँ माँ से किये हुए वो वादे,
अभी तो टाईम नहीं है ,
अगले हफ्ते जब छुट्टी ले कर
बीवी को शापिंग करने ले जाऊंगा,
तो माँ तुमारा चश्मा ज़रूर बनवाऊंगा।
और एक बार माँ और बीवी दोनों की साड़ी लेने बाज़ार गया,
तो वहां भी माँ की ममता के आगे हार गया,
बीवी एक महंगी साड़ी लेने के लिए अड़ गयी,
और जेब की रकम बीवी की साड़ी के लिए ही कम पड़ गयी,
माँ ने तब भी यही कहा था
"बेटा तू बहु को ही साड़ी दिला दे
मुझे कौन सा किसी पार्टी में जाना है ,
सारा दिन घर पर ही तो बिताना है "
और एक बार माँ ने कहा था
"बेटा भरोसा नहीं रहा , पता नहीं कब चली जाऊं,
सोचती हूँ एक बार हरिद्वार हो आऊं"
अगले साल चली जाना माँ
मैंने ये कह कर टाल दिया था,
और माँ को घर की रखवाली के लिए छोड़,
हिल स्टेशन पर 'विद फैमिली' डेरा डाल दिया था।
और एक बार माँ ने जब मेरी तरक्की के लिए व्रत रखा था,
और भगवान् से मन्नत मांगी थी उस दिन
मैंने अपनी निकृष्टता की हर सीमा लांघी थी,
मैंने कहा था माँ मैं शाम को जल्दी घर आऊंगा
और तुम्हारे लिए फल लाऊंगा,
लेकिन जैसे ही हुई शाम,
टकराए जाम से जाम
घर पहुंचा तो बहुत देर हो चुकी थी,
और माँ फलों के इंतज़ार में भूखी ही सो चुकी थी।
और जिस दिन मन्नत पूरी हुई
मुझे माँ के साथ मंदिर जाना था,
लेकिन दूसरी तरफ दोस्तों के साथ खाना खाना था,
मैंने उस दिन भी अपने पुत्र धर्म से नाता तोड़ दिया था,
और माँ के बूढ़े ज़र्ज़र शरीर को,
बसों में धक्के खाने के लिए,
भगवान् भरोसे छोड़ दिया था।
माँ के नाम कोई प्रोपर्टी नहीं थी,
और माँ का व्यवहार भी सख्त नहीं था,
शायद इसी लिए मेरे पास
माँ के लिए वक़्त नहीं था।
वो माँ जिसने नौ महीने गर्भ में रखा
अपने ही खून से छली गयी,
और ज़रूरतों का इंतज़ार करते करते चली गयी।
देखो देखो माँ का शरीर अब भी कुछ नहीं मांग रहा
चुप चाप सो रहा है ,
और वो बेटा किसी को क्या बताये
की वो क्यों रो रहा है,
अब तो केवल पश्चाताप के आंसू ही बहाऊंगा
और जिस माँ ने अपना सबकुछ दिया
उसे सिर्फ कन्धा ही दे पाउँगा ................... ।
और बेटा निःशब्द किसी मूर्ती सा खड़ा था,
फर्क था तो सिर्फ आंसुओं का
जो निरंतर बह रहे थे,
और बिना कुछ कहे ही सब कुछ कह रहे थे।
बेटा इसलिए नहीं रो रहा था
की माँ ज़िन्दगी से मुह मोड़ गयी थी,
मुझे अकेला छोड़ गयी थी
वो जानता है की मौत तो सिर्फ एक बहाना है,
एक दिन हम सबको जाना है
बल्कि इसलिए रो रहा है,
कि मेरी माँ ने जीवन में बाज़ार से,
कभी कुछ लाने के लिए नहीं कहा
कभी कुछ खाने के लिए नहीं कहा,
हर कमी को चुप चाप सहा
और मैं अनजान बन सब देखता रहा।
माँ खुद गीले में सोती है,
बच्चे को को सूखे में सुलाती है,
बच्चा रोये तो सारी रात बाँहों में झुलाती है,
बच्चों को मुस्कुराता देख माँ के नयन
कैसे ख़ुशी से फूल जाते हैं,
और बच्चे बड़े हो कर
कितनी आसानी से अपना फ़र्ज़ भूल जाते हैं।
जब कभी घर देर से आता था,
तो माँ को दरवाज़े पे खड़ा पता था,
माँ उसी वक्त मेरे लिए गरमा गर्म खाना पकती थी,
और मुझे खिलने के बाद ही
बचा खुचा खुद खाती थी।
एक बार जब मैं बीमार पड़ा
और बहुत तेज़ बुखार चढ़ा,
माँ कभी बातों से बहलाती - कभी पीठ सहलाती
कभी दावा कभी दुआ करते कितना रोई,
सारी रात जगी, एक पल भी नहीं सोयी।
और एक बार माँ का शुगर लेवल थोडा सा बढ़ा पाया था,
तो मुझे कितना गुस्सा आया था ,
माँ ने तो बस प्रसाद का एक पेंडा खाया था,
और उस दिन के बाद से मीठे को कभी हाथ नहीं लगाया था ।
और जिस दिन हमारी फैमिली डिनर पर जाती थी,
माँ घर पर अचार से रोटी खाती थी,
शुगर से बहुत घबराती थी।
हाँ मैंने माँ से किया था उस दिन दावा लाने का वादा,
लेकिन दावा की दुकान पर थी भीड़ बहुत ज्यादा,
बेटे का जन्मदिन है देर हो गयी तो मचल जायेगा,
शीशी में ज़रा सी दावा बची है
माँ का काम तो किसी न किसी तरह चल जायेगा।
माँ के न पैरों में जान न हाथ में छड़ी थी,
दिखाई कम देता था एक बार गिर पड़ी थी,
तब माँ ने पहली बार कहा था
"बेटा मुझे एक चश्मा ला दे"
कैसे भूलूँ माँ से किये हुए वो वादे,
अभी तो टाईम नहीं है ,
अगले हफ्ते जब छुट्टी ले कर
बीवी को शापिंग करने ले जाऊंगा,
तो माँ तुमारा चश्मा ज़रूर बनवाऊंगा।
और एक बार माँ और बीवी दोनों की साड़ी लेने बाज़ार गया,
तो वहां भी माँ की ममता के आगे हार गया,
बीवी एक महंगी साड़ी लेने के लिए अड़ गयी,
और जेब की रकम बीवी की साड़ी के लिए ही कम पड़ गयी,
माँ ने तब भी यही कहा था
"बेटा तू बहु को ही साड़ी दिला दे
मुझे कौन सा किसी पार्टी में जाना है ,
सारा दिन घर पर ही तो बिताना है "
और एक बार माँ ने कहा था
"बेटा भरोसा नहीं रहा , पता नहीं कब चली जाऊं,
सोचती हूँ एक बार हरिद्वार हो आऊं"
अगले साल चली जाना माँ
मैंने ये कह कर टाल दिया था,
और माँ को घर की रखवाली के लिए छोड़,
हिल स्टेशन पर 'विद फैमिली' डेरा डाल दिया था।
और एक बार माँ ने जब मेरी तरक्की के लिए व्रत रखा था,
और भगवान् से मन्नत मांगी थी उस दिन
मैंने अपनी निकृष्टता की हर सीमा लांघी थी,
मैंने कहा था माँ मैं शाम को जल्दी घर आऊंगा
और तुम्हारे लिए फल लाऊंगा,
लेकिन जैसे ही हुई शाम,
टकराए जाम से जाम
घर पहुंचा तो बहुत देर हो चुकी थी,
और माँ फलों के इंतज़ार में भूखी ही सो चुकी थी।
और जिस दिन मन्नत पूरी हुई
मुझे माँ के साथ मंदिर जाना था,
लेकिन दूसरी तरफ दोस्तों के साथ खाना खाना था,
मैंने उस दिन भी अपने पुत्र धर्म से नाता तोड़ दिया था,
और माँ के बूढ़े ज़र्ज़र शरीर को,
बसों में धक्के खाने के लिए,
भगवान् भरोसे छोड़ दिया था।
माँ के नाम कोई प्रोपर्टी नहीं थी,
और माँ का व्यवहार भी सख्त नहीं था,
शायद इसी लिए मेरे पास
माँ के लिए वक़्त नहीं था।
वो माँ जिसने नौ महीने गर्भ में रखा
अपने ही खून से छली गयी,
और ज़रूरतों का इंतज़ार करते करते चली गयी।
देखो देखो माँ का शरीर अब भी कुछ नहीं मांग रहा
चुप चाप सो रहा है ,
और वो बेटा किसी को क्या बताये
की वो क्यों रो रहा है,
अब तो केवल पश्चाताप के आंसू ही बहाऊंगा
और जिस माँ ने अपना सबकुछ दिया
उसे सिर्फ कन्धा ही दे पाउँगा ................... ।
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